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धान-गेहूँ की बजाय छत्तीसगढ़ के ये किसान कॉफी उत्पादन से कमा रहा हैं लाखों

धान-गेहूँ की बजाय छत्तीसगढ़ के ये किसान कॉफी उत्पादन से कमा रहा हैं लाखों coffee farming in chhattisgarh

भारतीय किसान अन्य देशों से बिल्कुल भी पीछे नहीं है. तमाम सोशल मीडिया पर वायरल हो रही खेती की तकनीक ग्रामीण किसानों के लिए वरदान साबित हो रही है. एक समय में जहाँ केवल खेती के नाम पर साल में दो बार धान-गेहूँ ही बोया जाता था. वहीं आज किसान इससे अलग भी जाकर फ़सल उगा रहे हैं. बहुत से किसान तो ऐसे भी हैं जो देश की ज़मीन पर ही विदेशी फल-सब्जियाँ तक उगा रहे हैं. इससे उनकी तरक्क़ी के साथ भारत भी आत्मनिर्भर बन रहा है.

आज भी हम आपको खेत-खलिहान से आई एक ऐसी ही ख़बर से रुबरू करवाएंगे जिसे पढ़कर आपको पता चलेगा कि फसलें अब भौगोलिक सीमाओं में बंधी नहीं हैं. किसान अब देश के दूसरे कोने की फसल भी दूसरे कोने में उगाने लगे हैं. उदाहरण के तौर पर कॉफी (Coffee Farming) की बात जब भी होती है, आप की नज़र सीधे दक्षिण भारत पर जाकर रूकती है. लेकिन आज हम आपको छत्तीसगढ़ में हो रहे कॉफी उत्पादन के बारे में बताने जा रहे हैं.

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कहाँ की जा रही है कॉफी की खेती (Coffee Farming)

छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) के बस्तर (Bastar) जिले में दरभा ब्लॉक के ककालगुर और डिलमिली गाँव के किसान कॉफी की खेती कर रहे हैं. किसानों की लगन देखकर कॉफी उत्पादन के लिए ज़िला प्रशासन भी आगे आया है. नक्सलवादियों का इलाक़ा होने के बावजूद यहाँ के किसान जिस तरह से कॉफी (Coffee) उत्पादन में रुचि दिखा रहे हैं, वह काबिले तारीफ हैं.

इसे देखते हुए यहाँ का उद्यानिकी विभाग हॉर्टिकल्चर कॉलेज (Horticulture college) के जरिए नई तकनीक सिखा रहा है. जिससे किसान बेहतर तकनीक के साथ आधुनिक ढंग से कॉफी का अधिक मात्रा में उत्पादन करें. कृषि वैज्ञानिकों का तर्क है कि दरभा से लेकर ककनार तक जिस तरह की ज़मीन है, इसपर पहाड़ी ढंग से बेहतरीन खेती की जा सकती है.

20 एकड़ ज़मीन पर उगाते हैं कॉफी

यहीं के तितिरपुर गाँव के रहने वाले कुलय जोशी (Kulay Joshi) बीते चार सालों से कॉफी उत्पादन में व्यस्त हैं. जोशी बताते हैं कि शुरुआती दिनों में महज़ दो एकड़ ज़मीन पर कॉफी की खेती की. कारण शुरुआत में खेती के सफल और असफल होने का डर लगा था. लेकिन दूसरे साल 18 एकड़ पर काॅफी की खेती की और अब तो वह पूरे 20 एकड़ पर कॉफी की खेती करने जा रहे हैं.

उन्होंने फिलहाल ‘दो बाई दो मीटर ज़मीन पर अपना प्लांट’ लगाया है. एक प्लांट पर एक से डेढ किलोग्राम बीज का उत्पादन हुआ था. वहीं दो एकड़ जमीन पर कॉफी की खेती को तीन साल हो गए हैं, तीसरे साल में जब हमने पहली फसल ली, तो पांच क्विंटल कॉफी के बीज का उत्पादन हुआ.” उसके मुकाबले आज उत्पादन कई गुना बढ़ गया है.

एकड़ में 30 से 40 हज़ार का होता है फायदा

कृषक जोशी जानकारी देते हुए आगे बताते हैं कि, फिलहाल वह एक सरकारी प्रोजेक्ट के अंतर्गत खेती कर रहे हैं. वैसे कॉफी की क़ीमत एक रुपए प्रति ग्राम होती है. इसलिए हम ‘बस्तर कॉफी’ के नाम से 250 ग्राम का पैकेट 250 रुपए में बेचते हैं. इस तरह से एकड़ में एक साल में 30 से 40 हज़ार रुपए की बचत की जा सकती है. सबसे अच्छी बात यह है कि, कॉफी के साथ ही काली मिर्च और मूंगफली की भी खेती की जा सकती है. कॉफी की फ़सल साल में एक बार ही उगाई जा सकती है.

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60 सालों तक एक पौधा देगा फल

कॉफी बोर्ड (Coffee Board) के अनुसार काॅफी का पौधा एक बार लगा देने पर यह 60 सालों तक फ़सल ले सकते हैं. फिलहाल इसकी खेती दक्षिण भारत के कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश में की जाती थी, लेकिन अब मध्य भारत के छत्तीसगढ़ में भी इसकी खेती विस्तार कर रही है. कई इलाकों में इसे कहवा के नाम से जाना जाता है. पहले साल काॅफी बोने में अधिक ख़र्च आता है. लेकिन इसके बाद इसका ख़र्चा नाम मात्र का हो जाता है.

रोजगार के खुलेंगे द्वार

किसानों ने जिस तरह से नक्सल प्रभावित इलाके में कॉफी उत्पादन में दिलचस्पी दिखाई है. इससे किसानों की आर्थिक स्थित सुदृढ़ होगी,  साथ ही रोजगार के नए आयाम भी सृजित होंगे. आज बस्तर घाटी में दुनिया भर में लुप्त होने की कगार पर पहुँची अरेबिका–सेमरेमन, चंद्रगरी, द्वार्फ, एस-8, एस-9 कॉफी रोबूस्टा- सी एक्स आर की खेती भी कर रहे हैं. जिसकी क़ीमत धान-गेहूँ के अलावा तमाम पारंपरिक फसलों से कहीं ज्याद है. इससे स्थानीय लोगों को रोजगार भी उनके घर के पास ही मिल जाता है.

समुद्र से 500 मीटर ऊंचाई पर होती है कॉफी

कृषि वैज्ञानिक इस संबंध में जानकारी देते हुए बताते हैं कि छत्तीसगढ़ के लोग अब तक वनों पर ही निर्भर रहते थे. लेकिन अब उन्होंने कॉफी की खेती की शुरुआत की है तो इसके लिए जलवायु भी बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है. इसकी खेती के लिए समुद्री तल से ज़मीन की ऊंचाई 500 मीटर से अधिक होनी चाहिए. वहीं बस्तर की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार की है कि, यहां के इलाके ऐसे भी हैं, जहाँ ऊंचाई 600 से 800 मीटर तक है. ऐसे में उन इलाकों में बेहद अच्छे तरीके से काॅफी की खेती की जा सकती है. कॉफी की खेती के लिए पौधों को छांव की ज़रूरत होती है. इसलिए किसान पहाड़ी पर कुछ ऐसे पेड़ उगा रहे हैं जिससे छांव के साथ उन्हें और भी फायदा मिल सके.

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कॉफी के साथ उगाई जा सकती हैं ये फसलें

कॉफी के पौधे को छांव देने के लिए आम, कटहल, सीताफल, काली मिर्च जैसी फसलों को भी उगाया जा सकता है. ये पेड़ कॉफी के पौधे को छाया के साथ किसान को दूसरी फ़सल का फायदा भी देंगे. इन्हीं पौधे के साथ काली मिर्च को भी चढ़ाया जा सकता है. अच्छी बात ये है कि इस तरह की तकनीक को देश में पहली बार छत्तीसगढ़ में अपनाया जा रहा है.

केवल 50 किसानों मिलकर की थी शुरुआत

कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो पूर्व में बस्तर के लोग केवल धान उगाया करते थे. लेकिन जब कॉफी की शुरुआत हुई तो सबसे पहले किसानों ने 20 एकड़ में कॉफी उत्पादन शुरू किया. जिसके बाद इस फ़सल की देखभाल शुरुआती 3 साल तो कृषि वैज्ञानिक ख़ुद ही करते हैं. इसके बाद फ़सल किसानों को सौंप दी जाती है. जब यह फ़सल सफल हुई हो कृषि वैज्ञानिकों ने वहाँ के 50 किसानों का चयन किया और 100 एकड़ भूमि पर काॅफी खेती शुरू की.

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ऐसे बनती है ‘बस्तर कॉफी’

‘बस्तर कॉफी’ आज अपने आप में एक अलग पहचान बन चुकी है. यदि ऐसा ही चलता रहा तो संभव है कि आने वाले सालों में इसका एक्सपोर्ट (Export) दूसरे देशों में भी किया जाने लगे. कॉफी को तैयार करने के लिए सबसे पहले इसके फल को तोड़ा जाता है। फिर इसके बीज को निकाल कर धूप में सुखा दिया जाता है. जिसके बाद प्रोसेसिंग यूनिट के ज़रिए बीज रूप में अलग किया जाता है. अलग करने के बाद इसको तेज आंच पर भूना जाता है. जिसके बाद पाउडर फिल्टर कॉफी के लिए तैयार कहलाता है.इस प्रक्रिया में ग्रामीण लोग ही शामिल होते हैं, इससे फ़सल के लाभ के साथ लोगों को रोजगार भी मिलता है.

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KAMLESH VERMA

दैनिक भास्कर और पत्रिका जैसे राष्ट्रीय अखबार में बतौर रिपोर्टर सात वर्ष का अनुभव रखने वाले कमलेश वर्मा बिहार से ताल्लुक रखते हैं. बातें करने और लिखने के शौक़ीन कमलेश ने विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से अपना ग्रेजुएशन और दिल्ली विश्वविद्यालय से मास्टर्स किया है. कमलेश वर्तमान में साऊदी अरब से लौटे हैं। खाड़ी देश से संबंधित मदद के लिए इनसे संपर्क किया जा सकता हैं।

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